क्या यूपी चुनाव की लड़ाई मोदी फैक्टर से निकलकर योगी बनाम अखिलेश हो गई है?
नई दिल्ली : 2014 से देश की राजनीति में जो फर्क देखने को मिला, वह यह कि राज्यों के विधानसभाओं के चुनाव भी मोदी के चेहरे पर लड़े जाने लगे। भारतीय जनता पार्टी (BJP) के लिए मोदी (PM Modi) का चेहरा सबसे बड़ा अस्त्र बना। इसके जरिए पार्टी को यह फायदा मिलता रहा है कि बहुत सारे सवालों के जवाब देने से वह बच जाया करती रही है। लोग बीजेपी उम्मीदवारों (BJP Candidate) के नाम पर नहीं जाते, उनके लिए उम्मीदवार का मतलब मोदी ही हो जाते हैं। इसके बाद विपक्ष के लिए भी यह मजबूरी हो जाती थी कि वह अपना फोकस मोदी पर केंद्रित करे। जैसे ही ऐसा होता कि लड़ाई वहां 'बनाम मोदी' हो जाती। 'यूपी में का बा?' बना सबसे बड़ा उदाहरण उत्तराखंड में हरीश रावत कांग्रेस नेतृत्व से इसी तर्क के आधार पर सीएम का चेहरा घोषित करने की मांग कर रहे हैं कि अगर हमारे पास सीएम का चेहरा होगा तो हम लड़ाई को लोकल मुद्दों पर केंद्रित कर सकते हैं वर्ना लड़ाई 'बनाम मोदी' हो जाएगी। लेकिन यूपी के चुनाव में जो सबसे बड़ा फर्क देखने को मिल रहा है वह यह है कि यूपी की चुनावी लड़ाई मोदी केंद्रित न होकर योगी बनाम अखिलेश दिखने लगी है। उसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि 'यूपी में का बा?' के जवाब में जिस एक बुंदेलखंडी गीत ने सबसे ज्यादा धूम मचा रखी है, वह है- 'यूपी में बाबा हैं, यूपी में बाबा हैं।' सिर्फ इस गीत की बात नहीं है, अब तक पूरे चुनावी अभियान को देखिए, वह सिर्फ योगी और अखिलेश के तर्क-वितर्क और विवाद तक ही केंद्रित है। उसमें अभी कहीं मोदी नहीं आए हैं। क्या योगी का मिजाज बन रहा वजह?2017 के चुनाव में योगी आदित्यनाथ कहीं थे ही नहीं। मुख्यमंत्री बनने के बाद से और 2022 के चुनाव के दरम्यान खुद योगी बड़ा 'ब्रैंड' बन चुके हैं। राज्य की चुनावी कमान उन्होंने खुद संभाल ली है। उन्हें पता है कि 2022 में अगर फिर से मुख्यमंत्री पद पर वापसी करनी है तो उसके लिए लड़ाई किसी के भरोसे नहीं बल्कि अपनी कूवत पर लड़नी होगी। वह कोई कोर कसर बाकी नहीं रख रहे। मुख्यमंत्री बनने से पहले भी वह बहुत फायरब्रैंड नेता माने जाते रहे हैं। उनका जो यह मिजाज है, उस मिजाज का अक्स उनके चुनावी अभियान पर दिख रहा है। विपक्ष कह रहा है कि योगी आदित्यनाथ जो बोल रहे हैं, वह एक मुख्यमंत्री की भाषा नहीं हो सकती, लेकिन योगी को पता है कि चुनाव में वोटों की गोलबंदी कराने के लिए क्या जरूरी होता है? उन पर इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ रहा है कि विपक्ष क्या कह रहा है, उन्हें अपना लक्ष्य पता है। 'अब्बाजान' से शुरू हुआ उनका चुनावी अभियान '10 मार्च के बाद गर्मी निकाल देंगे' तक आ गया है। अखिलेश की रैलियों में भीड़ ने बढ़ाया मनोबलविपक्ष की बात करें तो यूपी में चुनावी तारीखों का ऐलान करने से पहले से ही अखिलेश यादव विपक्ष का मुख्य चेहरा बन गए। उनकी रैलियों में जिस तरह से भीड़ आना शुरू हुई, दूसरे दलों के नेताओं का उनकी पार्टी में आने का सिलसिला शुरू हुआ और उनके साथ छोटे दलों की जो गठबंधन बना उसने अखिलेश के मनोबल को मजबूत किया। नतीजा यह हुआ कि वह मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का जवाब आक्रामकता के साथ देने लगे। वह योगी के किसी भी बयान को नजरअंदाज नहीं कर रहे हैं। 'अब्बाजान' के जवाब में उन्होंने 'चिलमधारी' कहना शुरू किया और उनके दोस्त चौधरी जयंत ने 'गर्मी निकाल देने वाले' बयान के जवाब में 'बीजेपी के लोगों की चर्बी निकाल देने' की बात कह रहे हैं। मायावती का चुनावी अभियान अभी तक बहुत सीमित रहा है। अब जब वह निकली भी हैं तो वह उनका जोर अपनी बात कहने पर है। उधर, प्रियंका गांधी बीजेपी और योगी पर सवाल तो उठा रही हैं लेकिन उनकी भाषा में वह आक्रामकता नहीं है। योगी और अखिलेश की भाषा की जो आक्रामकता है, उसके चलते ही अब तक चुनावी अभियान इन्हीं दो के बीच केंद्रित दिख रहा है। बदले माहौल का किस पार्टी को होगा फायदा?बीजेपी के अंदर भी यह सवाल मथा जा रहा है कि चुनावी अभियान जिस तरह से योगी बनाम अखिलेश हो गया है, उसमें फायदा होगा या नुकसान? पीएम मोदी की जो राजनीतिक अहमियत है उसे किसी भी कीमत पर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। 'बनाम मोदी' के जहां भी मुकाबले हुए हैं, उसमें ज्यादातर बीजेपी को फायदा हुआ है। इसी बात को ध्यान में रख कर राज्य बीजेपी ने बूथ लेवल के कार्यकर्ताओं से कहा है कि वोटर्स के बीच में 'डबल इंजन' वाली सरकार पर जोर दें। नारे भी मोदी और योगी के ही लगें। केंद्रीय योजनाओं का जिक्र करते समय केंद्र सरकार के बजाय मोदी सरकार कहें। वोटर्स को यह भी याद दिलाते रहे हैं कि 'मोदी जी' हमारे राज्य के सांसद भी हैं, उन्हें 2024 में फिर से लाना है। केंद्रीय नेतृत्व से अनुरोध भी किया गया है कि पीएम की रैलियों की संख्या बढ़ाई जाए। उधर एसपी-आरएलडी कैंप में माना जा रहा है कि योगी ने बीजेपी का पूरा चुनाव 'आत्मकेंद्रित' कर लिया है, यह उन लोगों के लिए फायदेमंद है। इससे उन्हें उनके पांच साल के कार्यकाल पर सीधे सवाल करने का मौका मिल रहा है। चूंकि उनके पास जवाब नहीं है, इसी वजह से गर्मी निकालने की बात करने लगे हैं। दोनों खेमों के तर्कों से हटकर वोटर ने क्या समझ बनाई है, इसका पता तो 10 मार्च को ही चलेगा।
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क्या यूपी चुनाव की लड़ाई मोदी फैक्टर से निकलकर योगी बनाम अखिलेश हो गई है?
Reviewed by Fast True News
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February 06, 2022
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