अर्जुन सिंह चुने गए मुख्यमंत्री लेकिन बन गए राज्यपाल, यह किसकी मजबूरी थी- दाऊ साहब की या राजीव गांधी की?
भोपालः मध्य प्रदेश के सबसे ताकतवर राजनेताओं में शुमार किए जाने वाले अर्जुन सिंह की राजनीति में एंट्री जितनी विवादास्पद रही, उतनी ही राज्य के मुख्यमंत्री पद से उनकी विदाई। 1957 में पहली बार विधायक चुने गए अर्जुन सिंह को कांग्रेस का टिकट ऑफर किया गया था, लेकिन वे निर्दलीय चुनाव लड़े और जीते। चुनाव जीत कर उन्होंने कांग्रेस को यह बताया कि उन्हें पार्टी का कृपापात्र बनने की जरूरत नहीं है। अपने पहले चुनाव में कांग्रेस जैसी सर्वशक्तिमान पार्टी को ठसक दिखाने वाले मध्य प्रदेश के दाऊ साहब साल 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी के एक इशारे पर मुख्यमंत्री पद का त्याग करने को तैयार हो गए। यह आलाकमान के सामने उनका आत्मसमर्पण था या गांधी परिवार से अपनी नजदीकियां बनाए रखने की मजबूरी, इसको लेकर राजनीति के जानकार अब भी एकमत नहीं हैं। संजय गांधी ने बनवाया 1980 में सीएम नौ जून, 1980 को पहली बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने वाले अर्जुन सिंह को यह कुर्सी संजय गांधी के समर्थन से मिली थी। हालांकि, इससे पहले की विधानसभा में वे विपक्ष के नेता थे, लेकिन उस समय प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रहे शिवभानु सिंह सोलंकी बड़े आदिवासी नेता थे। वे मुख्यमंत्री पद के लिए खुद को स्वाभाविक दावेदार के रूप में पेश कर रहे थे। 1980 में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 246 सीटों पर जीत मिली तो सीएम पद के लिए जोड़तोड़ शुरू हो गई। पर्यवेक्षक बनकर आए प्रणव मुखर्जी जब एकमत नहीं बना पाए तो उन्होंने शक्ति परीक्षण कराने का फैसला किया। शक्ति परीक्षण के दौरान भोपाल में माहौल इतना तनावपूर्ण था कि मुखर्जी वोटों का बक्सा अपने साथ दिल्ली लेकर चले गए। दावों को सही मानें तो ज्यादा विधायकों के वोट सोलंकी को मिले थे, लेकिन संजय गांधी के कहने पर अर्जुन सिंह को विधायक दल का नेता चुना गया। तमाम आरोप लगे, लेकिन बेदाग बचते रहे 1980 से 1985 तक मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए अर्जुन सिंह कई बार विवादों में आए। विपक्ष के साथ सांठगांठ से लेकर चुरहट लॉटरी कांड से संबंधित तमाम आरोप उनके खिलाफ लगे, लेकिन वे हर बार बेदाग बच निकलने में सफल रहे। कहा जाता है कि उस समय विपक्ष के नेता रहे सुंदरलाल पटवा उनके अच्छे दोस्त थे और दोनों के बीच गोपनीय समझौता था। लेकिन पटवा ने 1980 से 1985 के बीच हर साल विधानसभा में अर्जुन सिंह की सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया। चुने गए विधायक दल के नेता 1985 के विधानसभा चुनाव में जब कांग्रेस को 251 सीटों पर जीत मिली तो अर्जुन सिंह का मुख्यमंत्री बनना तय माना जा रहा था। इसके वाजिब कारण भी थे। इन चुनावों में कांग्रेस का सबसे लोकप्रिय चेहरा वही थे। कांग्रेस के जीते हुए विधायकों में 200 से ज्यादा नए चेहरे थे जिन्हें अर्जुन सिंह ने टिकट दिलाया था। बिना किसी खास प्रतिरोध के उन्हें नए विधायक दल का नेता चुन लिया गया। इसके अगले दिन वे अपनी कैबिनेट को अंतिम रूप देने के लिए दिल्ली में राजीव गांधी से मिलने पहुंचे। प्रधानमंत्री आवास में जैसे ही वे राजीव गांधी के सामने आए, उन्होंने अर्जुन का हाथ पकड़कर पंजाब का राज्यपाल बनने का आग्रह किया। चुपचाप मान लिया राजीव का फैसला राजीव के मुंह से यह बात सुनकर अर्जुन सिंह अवाक रह गए। उनके हाथों में तब भी मंत्रिमंडल में शामिल होने वाले लोगों की सूची थी, लेकिन उन्होंने राजीव के फैसले पर कोई आपत्ति नहीं जताई और तुरंत हां कह दिया। राजीव ने पूछा कि फैसला लेने के लिए उन्हें किसी और से बात करने की जरूरत है तो अर्जुन ने मना कर दिया। इसके बाद राजीव ने मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष पद के लिए उनके पसंदीदा नाम पूछे। इसके थोड़ी देर बाद अर्जुन सिंह ने अपने बेटे अजय सिंह राहुल को भोपाल फोन कर कहा कि वे मोतीलाल वोरा को लेकर एयरपोर्ट पहुंच जाएं। जिस हवाई जहाज से अर्जुन सिंह दिल्ली गए थे, उसी को वापस भोपाल भेजा गया। अजय सिंह के साथ वोरा इस हवाई जहाज से दिल्ली आए, लेकिन तब तक दोनों में से किसी को कुछ पता नहीं था। अजय सिंह की मानें तो रास्ते भर वोरा उनसे अर्जुन सिंह के मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री पद के लिए सिफारिश करने की बात कर रहे थे। दिल्ली पहुंचने पर वोरा की मुलाकात राजीव गांधी से हुई और वे मुख्यमंत्री बन गए। फैसले की वजह अब भी स्पष्ट नहीं आज भी यह चर्चा होती है कि राजीव गांधी ने यह फैसला क्यों लिया और अर्जुन सिंह ने उसे क्यों मान लिया। उस समय कारण यही बताया गया कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पंजाब समस्या कांग्रेस सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गया था। इसे सुलझाने के लिए राजीव को एक कुशल प्रशासक की तलाश थी और उन्होंने अर्जुन सिंह को चुना। लेकिन राजनीति में ऐसे सीधे जवाबों को लोग आसानी से नहीं मंजूर करते। क्या डर गया था कांग्रेस नेतृत्व जानकारों की मानें तो विधानसभा चुनावों के नतीजे आने के बाद मध्य प्रदेश में अर्जुन सिंह सर्वशक्तिमान बन गए थे। उन्होंने अपने दम पर प्रदेश में कांग्रेस की सत्ता बरकरार रखी थी। उनकी ताकत की धमक दिल्ली तक सुनाई पड़ने लगी थी। यह शायद कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व का आंतरिक डर था जिसके चलते उसने अर्जुन सिंह को राज्य से बाहर भेजने का फैसला कर लिया। लेकिन फिर सवाल यह भी है कि अर्जुन सिंह इसके लिए क्यों राजी हुए। इसके जवाब में इंदिरा गांधी और राजीव गांधी से उनकी नजदीकियों का तर्क दिया जाता है। निकटता ही मजबूरी बन गई अर्जुन सिंह, गांधी परिवार के कितने नदजीक थे, इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि एक बार शरद पवार ने उन पर साड़ी पॉलिटिक्स का आरोप लगा दिया था। तब कहा गया था कि अर्जुन की पत्नी सरोज सिंह, सोनिया गांधी के लिए चंदेरी की साड़ियां लेकर आती हैं। इसलिए, परिवार से नजदीकियों की बात को खारिज नहीं किया जा सकता। वहीं इस तर्क को अकाट्य भी नहीं माना जा सकता क्योंकि अर्जुन अपने पहले चुनाव की तरह अड़ जाते तो शायद अपने दम पर मुख्यमंत्री भी बन सकते थे। आखिर 320 सदस्यों की विधानसभा में 200 से ज्यादा विधायकों का समर्थन उनके पास था।
from India News: इंडिया न्यूज़, India News in Hindi, भारत समाचार, Bharat Samachar, Bharat News in Hindi, coronavirus vaccine latest news update https://ift.tt/8BQfI9l
अर्जुन सिंह चुने गए मुख्यमंत्री लेकिन बन गए राज्यपाल, यह किसकी मजबूरी थी- दाऊ साहब की या राजीव गांधी की?
Reviewed by Fast True News
on
February 10, 2022
Rating:

No comments: