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म्यांमार में मतदान और भारत के लिए चीन की चुनौती, समझें बौद्धों के देश में भारत की क्या अहमियत

नई दिल्ली क्या म्यांमार में () का नेतृत्व कमजोर पड़ा है? इस बात की परख जल्द होने वाली है क्योंकि रविवार को म्यांमार में मतदान होने जा रहा है। आंग सान सू की के नेतृत्व में नैशनल लीग ऑफ डिमॉक्रसी को पिछले 2015 के चुनावों में एकतरफा विजय हासिल हुआ था। हालांकि, इस बीच रोहिंग्या संकट और कोविड-19 महामारी ने म्यांमार में बहुत कुछ बदल दिया है। बहरहाल, 8 नवंबर को म्यामांर की संसद के दोनों सदनों, ऊपरी सदन हाउस ऑफ नैशनलिटीज और निचले सदन हाउस ऑफ रेप्रजेंटेटिव्स, के लिए वोटिंग होगी। साथ में वहां के सात राज्यों और सात क्षेत्रों की कुल 1,171 सीटों पर भी मतदान होने हैं। म्यांमार के राष्ट्रपति का चयन संसद के दोनों सदन मिलकर करती हैं जबकि सातों राज्यों एवं क्षेत्रों के मुख्यमंत्रियों की नियुक्ती राष्ट्रपति करते हैं। चुनाव में रोहिंग्या संकट और कोविड-19 महामारी के साथ-साथ बौद्ध समुदाय में राष्ट्रवादी भावना के उभार एवं उसे सेना से प्राप्त समर्थन जैसे बड़े मुद्दे छाए हुए हैं। ध्यान रहे कि म्यांमार में शासन सेना और सरकार मिलकर चलाते हैं। रोहिंग्या संकट का चुनाव पर असर म्यांमार आर्मी ने 2017 में रखाइन प्रांत के आतंकवादी समहूों को ध्वस्त करना शुरू किया तो सात से आठ लाख रोहिंग्या बांग्लादेश भाग गए। सेना की कार्रवाई को आंग सान सू की और उनकी सरकार का समर्थन प्राप्त था। अभी रोहिंग्या शरणार्थी कथित तौर पर दुनिया के सबसे बड़े शरणार्थी कैंप कॉक्स बाजार में रह रहे हैं। बांग्लादेश चाहता है कि म्यांमार रोहिंग्याओं को वापस ले, लेकिन म्यांमार का कहना है कि रोहिंग्या उसके अपने लोग नहीं बल्कि बंगाली हैं। इस कारण वह रोहिंग्याओं को वापस लेने पर राजी नहीं है। पिछले चुनावों में रोहिंग्याओं ने मतदान किया था, लेकिन इस बार वो नदारद हैं। कई रोहिंग्या उम्मीदवारों का नामांकन रद्द किया जा चुका है। पिछले महीने म्यांमार के चुनाव आयोग ने कहा था कि सुरक्षा कारणों से रखाइन प्रांत के कई इलाकों में चुनाव नहीं करवाए जाएंगे।। यानी, म्यांमार में बच गए छह लाख रोहिग्या मतदान में हिस्सा नहीं ले पाएंगे। उनके साथ ही रखाइन प्रांत के बौद्ध भी मतदान नहीं कर पाएंगे जो सू की के विरोधी हैं और जिनका मानना है कि राजनीतिक मकसदों से चुनाव रद्द किया गया है। सू की के NLD के सामने सत्ता विरोधी लहर की चुनौती सेना ने 2008 में म्यांमार के संविधान का मसौदा तैयार किया था। इसका एक हिस्सा है 'रोड मैप टु डिमॉक्रसी'। सू की के नेतृत्व वाली नैशनल लीग ऑफ डिमॉक्रसी (NLD) ने संविधान निर्माण के बाद 2010 के पहले चुनाव का बहिष्कार किया था। उस वक्त भी सू की नजरबंद थीं। सेना ने यूनियन सॉलिडेरिटी ऐंड डिवलेपमेंट पार्टी (USDP) के जरिए छद्म उम्मीदवारों को चुनावी मैदान में उतारकर ज्यादातर सीटें जीत ली थीं। चुनाव के बाद जब सू की की रिहाई हुई तो सेना ने अंतरराष्ट्रीय दबाव में रानजीतिक और नागरिक समाज की गतिविधियों पर पाबंदियों में ढील और स्वतंत्र मीडिया को अनुमति दी। 2012 के उप-चुनाव में जब एनएलडी ने हिस्सा लिया तो सैन्य सुधारों को वैधता मिल गई। 2015 के पहले विश्वसनीय चुनाव में सू की जनता का अपार समर्थन मिला और वो विश्वस्तर पर लोकतंत्र की पहचान बनकर उभरीं। इस बार एनएलडी को सत्ता विरोधी लहर का सामना करना है। सू की संविधान को संशोधित कर लोकतांत्रिक व्यवस्था को पूर्ण करने के वादे के साथ सत्ता में आई थीं। लेकिन मिलिट्री को म्यांमार की संसद के दोनों सदनों के साथ-साथ प्रदेशों और क्षेत्रों की विधानसभाओं में भी नामांकन के जरिए 25% प्रतिनिधित्व दे दिया गया। यूएसडीपी अब भी सेना के छद्म प्रतिनिधि की भूमिका में है। दिक्कत यह है कि रक्षा और आंतरिक सुरक्षा जैसे मंत्रालय सेना के हाथों में ही है और वो कभी भी देश में आपातकाल की घोषणा कर सकती है। म्यांमार में भारत को चीन की चुनौती चीन सभी पड़ोसी देशों की तरह म्यांमार पर भी नजर गड़ाए है। उसने सू की और एनएलडी को 2015 से ही लुभाने की कोशिश में है। 2016 में जब सू की चीन गईं तो उनके लिए रेड कार्पेट बिछाया गया। बदले में इस साल जनवरी में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग का म्यांमार में भव्य स्वागत हुआ। शी ने म्यांमार के सरकारी अखबार में लिखा कि म्यांमार को उसके वैध अधिकारों, हितों और राष्ट्रीय प्रतिष्ठा की रक्षा में चीन हमेशा मदद करेगा। चीन खुद को ऐसे पेश कर रहा है, मानो वह दुनिया में म्यांमार का अकेला सहयोगी है। हालांकि, शी के दौरे पर म्यांमार और चीन के बीच किसी नए इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रॉजेक्ट के मसौदे पर दस्तखत नहीं हुआ, लेकिन दोनों देशों ने चीन-म्यांमार आर्थिक गलियारे पर तेज गति से काम करने पर रजमांदी जरूर जाहिर की। इस गलियारे में चीन की सीमा से म्यांमार के अंदर औद्योगिक ठिकानों के बीच हाई स्पीड रेलवे और रखाइन प्रांत के मध्य में 1.3 अरब डॉलर की लागत से एक बंदरगाह के निर्माण की योजना भी शामिल है। यह बंदरगाह चीन को हिंद महासागर में उतरने का रास्ता दे देगा और इससे उसके बेल्ड ऐंड रोड योजना को मजबूती मिलेगी। म्यांमार में चीन के खिलाफ किसी तरह की पहल सिर्फ तनावग्रस्त प्रदेशों में ही देखा जा सकता है जहां उसके बड़े इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रॉजेक्ट्स को भारी खतरा दिख रहा है। 2011 में काचीन में जबर्दस्त विरोध के कारण चीन के 6,000 मेगावॉट क्षमता वाले हाइडल डैम के निर्माण को रद्द करना पड़ा था। चीन की सरकारी मीडिया ग्लोबल टाइम्स में एक स्तंभकार ने लिखा, 'चुनाव के बाद चीन-म्यांमार रिश्ते में बहुत कुछ बदलाव नहीं आने वाला है, चाहे परिणाम कुछ भी आए। चीन हमेशा म्यांमार का विश्वसनीय भागीदार रहेगा और म्यांमार के विकास एवं शांति प्रक्रिया में रचनात्मक भूमिका अदा करता रहेगा।' सेना और सरकार, दोनोंं से भारत के अच्छे संबंध भारत सरकार ने सू की और म्यांमार की सेना, दोनों के साथ सौहार्दपूर्ण रिश्ते बना रखे हैं। बौद्ध धर्म म्यांमार और भारत के बीच सांस्कृतिक सेतु की भूमिका निभा रहा है और मोदी सरकार ने रोहिंग्या संकट पर म्यामांर सरकार का समर्थन किया है। हालांकि, म्यांमार में इन्फ्रास्ट्रक्चर निर्माण के मामले में भारत अपने प्रतिस्पर्धी चीन के मुकाबले बहुत पीछे है। भारत अभी म्यांमार में दो प्रमुख इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रॉजेक्ट्स पर काम कर रहा है। इनमें एक भारत-म्यांमार और थाईलैंड के बीच ट्राइलैटरल हाइवे और दूसरा भारत को अपने उत्तर पूर्वी राज्यों से म्यांमार के जरिए सीधे जोड़ने वाला मल्टि मॉडल ट्रांजिट प्रॉजेक्ट शामिल है। इन दोनों प्रॉजेक्ट में एक बंदरगाह और एक इनलैंड वॉटरवे का निर्माण किया जाना है।


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म्यांमार में मतदान और भारत के लिए चीन की चुनौती, समझें बौद्धों के देश में भारत की क्या अहमियत म्यांमार में मतदान और भारत के लिए चीन की चुनौती, समझें बौद्धों के देश में भारत की क्या अहमियत Reviewed by Fast True News on November 06, 2020 Rating: 5

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