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यूपी में अब क्या करेंगे ओवैसी, उनके सबसे करीबी ने प्रचार करने से कर दिया मना

यूपी चुनाव को लेकर शुरुआत में ओवैसी जितनी सुर्खियां बटोर रहे थे, उससे लगने लगा था कि वही निर्णायक फैक्टर होंगे, लेकिन वक्त के साथ वह हाशिए पर जाते दिख रहे हैं। उन्हें एक झटका अपने ही राज्य से लगा है। तेलंगाना में ओवैसी की पार्टी सत्तारूढ़ दल- टीआरएस की सहयोगी है और राज्य के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव (केसीआर) के साथ ओवैसी के बड़े आत्मीय संबंध हैं। ओवैसी यूपी में अपनी पार्टी के एकमात्र प्रचारक हैं। यूपी के चुनावी परिदृश्य को देखते हुए उन्होंने चुनावी अभियान के दौरान केसीआर को यूपी आने का न्यौता दिया था, लेकिन केसीआर ने ओवैसी के लिए यूपी में प्रचार करने से मना कर दिया है। इसके पीछे वजह यह बताई जाती है कि केसीआर भी बीच-बीच में खुद को राष्ट्रीय नेता बनाने की गुंजाइश तलाशते रहते हैं। उनमें भी मोदी के खिलाफ खुद को विकल्प के रूप में पेश करने की ख्वाहिश जाग जाती है। उनकी ऐसी कोई भी ख्वाहिश यूपी के दो सबसे बड़े दल- एसपी, बीएसपी के बिना पूरी नहीं हो सकती। ऐसे में वह यूपी में ओवैसी की पार्टी का प्रचार कर इन दलों की नाराजगी नहीं मोल लेना चाहते। केसीआर जानते हैं कि ओवैसी की पार्टी के समर्थन में उनके जाने या न जाने से उनके नतीजों पर कोई असर नहीं पड़ेगा, लेकिन एसपी- बीएसपी से बेवजह ठन जाएगी, जिससे उनकी दीर्घकालीन राजनीति को नुकसान पहुंच सकता है। राष्ट्रीय राजनीति में उनके लिए ओवैसी से ज्यादा अखिलेश यादव और मायावती की अहमियत है। इस वजह से उन्होंने ओवैसी के यूपी आने के न्यौते को अस्वीकार कर दिया, लेकिन तेलंगाना में ओवैसी से रिश्ते खराब न होने पाएं, इसके मद्देनजर उन्होंने उन्हें यह भरोसा जरूर दिया कि वह यूपी में किसी और के लिए भी प्रचार करने नहीं जाएंगे। 10 मार्च की पेशबंदी पंजाब का चुनाव इतना ‘ओपन’ हो गया है कि ऊंट के किसी भी करवट बैठ जाने की बात कही जाने लगी है। 25 साल पुरानी दोस्ती तोड़कर शिरोमणि अकाली दल इस बार बीएसपी के साथ चुनाव मैदान में है, लेकिन 10 मार्च को लेकर उसने पर्दे के पीछे कुछ छुपी हुई चालें चलनी शुरू कर दी हैं। 10 मार्च नतीजों का दिन है। जब अकाली दल ने साथ छोड़ा तो बीजेपी कैप्टन अमरिंदर सिंह की पार्टी के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ रही है। अकाली दल के रणनीतिकार इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि नतीजे कुछ भी हो सकते हैं। अगर सरकार बनाने के लिए बाहर से समर्थन जुटाने की जरूरत आन पड़ी तो कांग्रेस से बात बनने वाली नहीं। आम आदमी पार्टी से बात बननी भी आसान नहीं है। सिर्फ बीजेपी ही होगी, जिसके साथ पुराने संबंधों के आधार पर सहजता से बात की जा सकती है। इसके मद्देनजर पार्टी ने यह तय किया है कि चुनाव अभियान में बीजेपी नेताओं पर तल्ख टिप्पणियां करने से बचा जाए ताकि रिश्तों में कड़वाहट न आए। इस रणनीति के तहत अकाली दल चुनाव अभियान में बीजेपी के प्रति सॉफ्ट रहेगा। अकाली दल के अंदर यह बात महसूस की जा रही है कि अगर किसान बिल को मुद्दा बनाकर गठबंधन को तोड़ने की जल्दी नहीं दिखाई होती तो किसान बिल की वापसी के बाद गठबंधन जारी रह सकता था। लेकिन उस समय तक उसे यह भरोसा नहीं हो पाया था कि केंद्र सरकार कानून वापस भी ले सकती है। ऐसा कहा जाता है कि कृषि कानूनों की वापसी के बाद अकाली दल और बीजेपी के बीच फिर से गठबंधन का रास्ता तलाशने की कोशिश बैकडोर से हुई भी, लेकिन वह परवान नहीं चढ़ पाई। हां, भविष्य में दोनों के बीच गठबंधन की गुंजाइश को सिरे से खारिज नहीं किया जा रहा है। अपनी ही रणनीति भारी चुनाव से ठीक पहले योगी सरकार के तीन मंत्रियों के इस्तीफे पार्टी के चुनावी अभियान पर भारी पड़ सकते हैं, ऐसा बीजेपी नेता ‘ऑफ द रेकॉर्ड’ बातचीत में मान रहे हैं। साथ ही एक और खबर और छनकर आ रही है। कहा जा रहा है कि इस नुकसान से पार्टी अपने आपको बचा सकती थी, लेकिन उसकी एक रणनीति उसके नुकसान का सबब बन गई। पार्टी के इंटरनल सर्वे में कई मंत्रियों के चुनाव हार जाने की संभावना पाई गई थी। इसके अलावा कुछ मंत्रियों के पार्टी छोड़ने की चर्चा भी पिछले महीने से ही शुरू हो गई थी। ये खबरें मीडिया में जगह न बना पाएं, पार्टी ने इस रणनीति पर काम शुरू कर दिया था। रणनीतिकारों को लग रहा था कि अगर ऐसी खबरें मीडिया में जगह बनाने लगीं तो पार्टी की छवि पर नकारात्मक असर पड़ेगा। इस वजह से मीडिया के बीच यह स्थापित करने की कोशिश हुई कि इंटरनल सर्वे से लेकर कुछ मंत्रियों के इस्तीफे की संभावना की जो खबरें सियासी गलियारों में तैर रही हैं उनमें कोई दम नहीं है। अब जब अचानक मंत्रियों के ताबड़तोड़ इस्तीफे शुरू हुए तो पार्टी रणनीतिकारों को लग रहा है कि अगर इंटरनल सर्वे और मंत्रियों के पार्टी छोड़ने की संभावनाएं पहले से ही मीडिया में होतीं, तो शायद अब उतनी तवज्जो नहीं बटोर पातीं और नुकसान भी कम होता। डैमेज कंट्रोल के लिए अब इस्तीफा देने वाले मंत्रियों के जिलों से पार्टी की जिला इकाइयों के उन प्रस्तावों की कॉपी मीडिया को ऑफ द रेकॉर्ड उपलब्ध कराई जा रही है, जिनमें इन मंत्रियों को टिकट न देने की मांग की गई थी। लेकिन कहावत है कि अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत। प्रेशर पॉलिटिक्स का शर्तिया इलाज उत्तराखंड में पुष्कर सिंह धामी ने हरक सिंह रावत को बर्खास्त कर ही दिया। पिछले काफी समय से वह बीजेपी में अपने को सहज नहीं पा रहे थे। एक तरफ वह बीजेपी में ‘प्रेशर पॉलिटिक्स’ का ‘खेल’ खेल रहे थे, दूसरी तरफ कांग्रेस से भी ‘मोलभाव’ कर रहे थे। उनको बाहर का रास्ता दिखाए जाने के बाद बीजेपी से कहीं ज्यादा कांग्रेस में प्रतिक्रिया देखने को मिली। कांग्रेस के कई नेता इस राय के हैं कि धामी ने जो रास्ता दिखाया है, उनकी लीडरशिप को भी उसी रास्ते पर चलना चाहिए। दरअसल कांग्रेस में पिछले काफी समय से पार्टी के कुछ नेताओं के बीजेपी के संपर्क में होने की बात कही जा रही है। एक पूर्व प्रदेश अध्यक्ष को तो नोटिस तक जारी किया गया, लेकिन अभी तक पार्टी ऐसे नेताओं के खिलाफ कार्रवाई से बचती आई है। अब पार्टी के इंटरनल सर्किल में माना जा रहा है कि इससे नुकसान हो रहा है। इस नुकसान से बचने के लिए वैसी ही कार्रवाई होनी चाहिए, जैसी कि धामी ने की। यह देखने वाली बात होगी कि धामी ने जो रास्ता दिखाया उस पर कांग्रेस नेतृत्व अमल करता है या नहीं, लेकिन बीजेपी के अंदर तो यह माना जा रहा कि इससे ‘प्रेशर पॉलिटिक्स’ पर विराम लग जाएगा। जिसको जाना होगा वह खुद ही इस्तीफा देकर चला जाएगा, दबाव नहीं बनाएगा। और बीजेपी में रहना चाहता होगा तो वह दबाव बनाना छोड़ देगा। वैसे धामी का यह रास्ता दूसरे चुनावी राज्यों के उन पार्टियों के लिए मुफीद हो सकता है जिन्हें इन दिनों टिकट के लिए अपने ही नेताओं की ‘प्रेशर पॉलिटिक्स’ का सामना करना पड़ रहा है।


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यूपी में अब क्या करेंगे ओवैसी, उनके सबसे करीबी ने प्रचार करने से कर दिया मना यूपी में अब क्या करेंगे ओवैसी, उनके सबसे करीबी ने प्रचार करने से कर दिया मना Reviewed by Fast True News on January 17, 2022 Rating: 5

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